जीतने अपने थे सब पराये थे
हम हवा को गले लगाये थे
जितनी कसमे थी सब थी शर्मिंदा
जितने वादे थे सर झुकाए थे
जितने आँसु थे सब थे बेगाने
जितने महिमाँ थे बिन बुलाए थे
सब किताबें पढ़ी पढ़ाई थी
सारे किस्से सुने सुनाये थे
एक बंजर जमीन के सीने में
मैंने कुछ आसमान उगाए थे
सिर्फ दो घूँट प्यास की खातिर
उम्र भर धूप में नहाये थे
हासिये पर खड़े हुए है हम
हमने खुद हासिये बनाये थे
मैं अकेला उदास बैठा था
शाम ने कहकहे लगाये थे
है गलत उसको बेवफा कहना
हम कहा के धुले धुलाये थे
आज कांटो भरा मुकदर है
हमने गुल भी बहुत खिलाये थे
- Rahat indori