हनुमान् ने अपने शरीर को अँगूठे के बराबर संकुचित कर लिया और वे उसी क्षण अँगूठे के बराबर छोटे हो गये।
देवताओं द्वारा हनुमान जी के बल और पराक्रम की परीक्षा लेने की इक्षा से देवी सुरसा राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान् जी को घेरकर कहा की मैं तुम्हें खाऊँगी क्योंकि यह वर दिया था कि कोई भी मुझे लाँघकर आगे नहीं जा सकता। ऐसा कहकर वह तुरंत ही अपना विशाल मुँह फैलाकर हनुमान् जी के सामने खड़ी हो गयी।
सुरसा के ऐसा कहने पर वानरशिरोमणि हनुमान जी कुपित हो उठे और बोले— ‘तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो जिससे उसमें मेरा भार सह सको’ यों कहकर जब वे मौन हुए, तब सुरसा ने अपना मुख दस योजन विस्तृत बना लिया।
अग्नि के समान तेजस्वी हनुमान् नब्बे योजन ऊँचे हो गये। यह देख सुरसा ने भी अपने मुँह का विस्तार सौ योजन का कर लिया।
सुरसा के फैलाये हुए उस विशाल जिह्वा से युक्त और नरक के समान अत्यन्त भयंकर मुँह को देखकर बुद्धिमान् वायुपुत्र हनुमान् ने मेघ की भाँति अपने शरीर को संकुचित कर लिया। वे उसी क्षण अँगूठे के बराबर छोटे हो गये।
फिर वे महाबली श्रीमान् पवनकुमार सुरसा के उस मुँह में प्रवेश करके तुरंत निकल आये और आकाश में खड़े होकर इस प्रकार बोले- ‘दक्षकुमारी! तुम्हें नमस्कार है। मैं तुम्हारे मुँह में प्रवेश कर चुका। लो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया। अब मैं उस स्थान को जाऊँगा, जहाँ विदेहकुमारी सीता विद्यमान हैं। राहु के मुख से छूटे हुए चन्द्रमा की भाँति अपने मुख से मुक्त हुए हनुमान जी को देखकर सुरसा देवी ने अपने असली रूप में प्रकट होकर उन वानरवीर से कहा— ‘कपिश्रेष्ठ! तुम भगवान् श्रीराम के कार्य की सिद्धि के लिये सुखपूर्वक जाओ। सौम्य! विदेहनन्दिनी सीता को महात्मा श्रीराम से शीघ्र मिलाओ।
कपिवर हनुमान जी का यह तीसरा अत्यन्त दुष्कर कर्म देख सब प्राणी वाह-वाह करके उनकी प्रशंसा करने लगे। वे वरुण के निवासभूत अलङ्घय समुद्र के निकट आकर आकाश का ही आश्रय ले गरुड़ के समान वेग से आगे बढ़ने लगे।
जो जल की धाराओं से सेवित, पक्षियों से संयुक्त, गानविद्या के आचार्य तुम्बुरु आदि गन्धर्वो के विचरण का स्थान तथा ऐरावत के आने-जाने का मार्ग है, सिंह, हाथी, बाघ, पक्षी और सर्प आदि वाहनों से जुते और उड़ते हुए निर्मल विमान जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जिनका स्पर्श वज्र और अशनि के समान दुःसह तथा तेज अग्नि के समान प्रकाशमान है तथा जो स्वर्गलोक पर विजय पा चुके हैं, ऐसे महाभाग पुण्यात्मा पुरुषों का जो निवासस्थान है, देवता के लिये अधिक मात्रा में हविष्य का भार वहन करने वाले अग्निदेव जिसका सदा सेवन करते हैं, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और तारे आभूषण की भाँति जिसे सजाते हैं, महर्षियों के समुदाय, गन्धर्व, नाग और यक्ष जहाँ भरे रहते हैं, जो जगत् का आश्रयस्थान, एकान्त और निर्मल है, गन्धर्वराज विश्वावसु जिसमें निवास करते हैं, देवराज इन्द्र का हाथी जहाँ चलता-फिरता है, जो चन्द्रमा और सूर्य का भी मङ्गलमय मार्ग है, इस जीवजगत् के लिये विमल वितान (चँदोवा) है, साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ने ही जिसकी सृष्टि की है, जो बहुसंख्यक वीरों से सेवित और विद्याधरगणों से आवृत है, उस वायुपथ आकाश में पवननन्दन हनुमान् जी गरुड़ के समान वेग से चले।
वायु के समान हनुमान जी अगर के समान काले तथा लाल, पीले और श्वेत बादलों को खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। उनके द्वारा खींचे जाते हुए वे बड़े-बड़े बादल अद्भुत शोभा पा रहे थे। वे बारम्बार मेघ-समूहों में प्रवेश करते और बाहर निकलते थे। उस अवस्था में बादलों में छिपते तथा प्रकट होते हुए वर्षाकाल के चन्द्रमा की भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। सर्वत्र दिखायी देते हुए पवनकुमार हनुमान् जी पंखधारी गिरिराज के समान निराधार आकाश का आश्रय लेकर आगे बढ़ रहे थे।
इस तरह जाते हुए हनुमान जी को इच्छानुसार रूप धारण करने वाली विशालकाया सिंहिका नामवाली राक्षसी ने देखा। देखकर वह मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी- आज दीर्घकाल के बाद यह विशाल जीव मेरे वश में आया है। इसे खा लेने पर बहुत दिनों के लिये मेरा पेट भर जायगा। अपने हृदय में ऐसा सोचकर उस राक्षसी ने हनुमान् जी की छाया पकड़ ली। छाया पकड़ी जाने पर वानरवीर हनुमान् ने सोचा—’अहो! सहसा किसने मुझे पकड़ लिया, इस पकड़ के सामने मेरा पराक्रम पङ्ग हो गया है। जैसे प्रतिकूल हवा चलने पर समुद्र में जहाज की गति अवरुद्ध हो जाती है, वैसी ही दशा आज मेरी भी हो गयी है’।